‘गज-फुट-इंच’
नाटक की पृष्ठभूमि एक कपड़े का कारोबार करने वाले
परिवार की है जिनकी ज़िन्दगी में व्यापार और मुनाफ़ा ही सबकुछ है। आज के हाईटेक हो
चुके जीवन में ऐसे भी चंद लोग हैं जिनका जीवन दुकानदारी और मुनाफ़े के जमा-खर्च में
सादा स्लेट सा रह गया। प्यार, मोहब्बत, भावनाओं जैसी बातों से कभी उनका वास्ता पड़ा
ही नहीं। उनकी ज़िन्दगी मुनाफ़े से इतर कुछ नहीं। नाटक के दौरान पति-पत्नी और नायक-नायिका
के बीच होने वाली बातचीत और परिस्थितियां, निसंदेह दर्शकों को गुदगुदाने का काम
करेंगी।
नाटक ये सबक भी देता है कि इंसान को समय के साथ
क़दम मिलाकर चलना ही होगा वरना वक़्त बहुत आगे निकल जाएगा और हम बहुत पीछे रह
जाएंगे। हां ये भी ध्यान रखना होगा कि इस भागमभाग और धक्कम पेली में कहीं इंसानियत
ना खोने पाए क्योंकि सबसे बड़ा ख़तरा इसी के खोने का है। समय की ज़रूरत को देखते हुए
कुछ छोटे-मोटे बदलाव किए गए हैं लेकिन मूल स्क्रिप्ट वही है जो लेखक ने लिखी है।
आज भी ढूंढने पर टिल्लू जैसे नौजवान कहीं ना
कहीं, किसी ना किसी रूप में मिल ही जाएंगे। लेकिन ये भी उतना ही बड़ा सच है कि ऐसे
लोगों को सच्चा प्यार करने वाला, वो जैसे हैं, उन्हें उसी रूप में स्वीकार करने
वाला भी कोई ना कोई मिल ही जाता है। ज़रूरत है तो एक सकारात्मक और सच्ची सोच की।
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