POEM

मेरा कसूर क्या है ?




हक़ की हुंकार लगाते हैं
हक़ का जो शोर मचाते हैं
वे ज़ोर-ज़ोर चिल्लाते हैं
उन मासूमों को, निर्दोषों को
जन-जन को मारे जाते हैं
जिन आदिवासी और दलित वर्ग के
अधिकारों का युद्ध बतलाते हैं
कभी उनके घर ये जाते हैं ?
उन अबलाओं की, मासूमों की
आंखों के निश्छल आंसू
क्या इनके दिल में
बेचैनी, बेचारगी और मजबूरी का द्वन्द उठाते हैं ?
मानव अधिकारों के रखवाले
क्यों ऐसे में आवाज़ उठाते
धरना देते, जनसमर्थन जुटाते नज़र नहीं आते हैं ?
सवाल यह है कि ये मरने वाले, जान गवाने वाले
क्या नहीं थे किसी के बेटे, बहु या बच्चे
क्या पेड, बस और ज़मीन पर बिखरे चिथडे
उनका दिल नहीं दहलाते है
क्यूं उनकी चीख, उनकी पुकार
उनकी टीस, उनकी कराह
ये संगदिल नहीं सुन पाते हैं
या फिर उनकी आवाज़,
ये सुनना नहीं चाहते हैं
सुनकर भी अनसुना कर जाते हैं
जिनके हक़ की लडाई
गोली, बम और विस्फोट के द्वारा
दुनिया को सुनवाते हैं
जिन्हें अनदेखा ये अक्सर कर जाते हैं
मरने वालों के पीछे बचे रहने वाले
अब इनसे पूछना चाहते हैं
मेरा कसूर क्या है ? मैने तुमसे छीना क्या है ?
तुम्ही कहो आखिर अब मेरी नियति क्या है ?
कहो मुझे, बतलाओ तो
आखिर मेरा कसूर क्या है ?


मां ! तुझसा नहीं कोई रिश्ता




लो एक बार फिर से आ गया मां-दिवस
एक बार फिर से सुबह सुबह दी मुबारक़बाद उन्हें फ़ोन पर
और बताया, आज है मां का दिन यानि मां-दिवस
जानती तो नहीं कब और क्यों शुरू हुआ ये दिन
जानती बस इतना हूं, है अधूरा हर दिन, तुम बिन
दूर हूं, पर तुम हो दिल में हर पल-छिन
है दुआ, रहे तुम्हारी ममता छाया हम पर बरसों बरस
और बस रहें गुज़रते यूं ही दिन
ख्याल आता है कभी–कभी
कैसे काल के कपाल में समा गया था
हम सबका रखवाला
बुला लिया था जिन्हें ईश्वर ने अपने पास
और छोड दिया था इस जहां में हमें
बिलकुल बेसहारा
इस आंधी, तूफां और पतझड के बीच
तब तुम बनी हमारी ढाल
नहीं चली इस बेदर्द, बेरहम ज़माने में
किसी की कोई चालाकी कोई चाल
हमें तो पता ही नहीं चला
कि तुमने सहा क्या–क्या
हमें तो तुमने महसूस भी नहीं होने दी
उसकी तपिश
तुम्हारे सीने जो जला, उसका धुआं
तुमने तो अपनी हर कोंपल को
खिलने, फलने फूलने का
पूरा और हर संभव मौक़ा दिया
तुमसे बनी शाखाएं आज बढ चुकी हैं
जो किसी और की होकर
तुम्ही से दूर हो चुकी हैं
फिर सोचा शाखाएं बडी चाहे जितनी हो जाएं
पर क्या पेड की जडों से दूर है हो सकती
चाहे कोई गुलशन महकाए पर
उसकी महक तुमसे अलग नहीं हो सकती
जैसे रगो में ख़ून बनकर बहते
तुम्हारे दूध की कोई क़ीमत नहीं हो सकती
नहीं हो सकता दुनिया में तुझसा कोई फरिश्ता
शायद इसीलिए कहते हैं कि
मां ! तुझसा नहीं कोई रिश्ता

ग्लोबल वार्मिंग




पत्ते सूखे जाते हैं
बादल ना अब गरजाते हैं
बेटी की शादी, मुन्ने की पढाई
घर का खर्चा, गेहूं की पिसाई
पेट्रोल की क़ीमत, छत पे दीमक
जेबें खाली, हर चीज़ की किल्लत
परेशान सब नज़र आते हैं
इतने पर भी हंसते गाते
बिज़लरी की बोतल लिए हाथ में
बडी बडी गाडी से उतरकर
एयरकंडीशन हाल में जाकर
ज़ोर-ज़ोर से, हाथ नचाकर
कुछ लोग हैं जो चिल्लाते हैं
पानी की किल्लत, गर्मी का झंझट
बढा-चढाकर, ज़ोर-ज़ोर चिल्लाते हैं
सूट पहनकर, प्रेस बुलाकर
तरह-तरह के पोज़ बनाकर
तस्वीरें खिंचवाते हैं
सारी परेशानी जोड-जाडकर
ग्लोबल वार्मिंग बतलाते हैं
खिडकी में बैठा देख कबूतर
फुर्र से उसे उडाते हैं
जो अब तक बैठा सोच रहा था
इस सब में मैं ग़लत कहां था
क्या मैने काटे जंगल
क्या मैने बसाए कांक्रीट नगर
क्या मैं हूं बहाता इन नदियों में
उद्योगों से निकलता प्रदुषित जल
क्या मैं हूं बनाता अपनी फैक्टरियों में
बंदूकें, गोलियां और बम
मैने तो नहीं डाली थी खेतों में रसायनिक खाद
मैने तो नहीं थे कराए दंगे और फसाद
फिर मुझे क्यों उडाया
फिर से तोड दिया एक पल में
घर मुश्किल से था बनाया
तुम्ही कहो किससे पूंछू
क्यों हो गए तुम सब मौन
कहो मुझे, बतलाओ तो
है इसका ज़िम्मेदार कौन . . . ?

NOTE : कृपया बतलाएं आखिर क्या है यह ग्लोबल वार्मिंग और कौन है इसका ज़िम्मेदार ? शायद आप ही हमें समझा पाएं ताकि हम उस कबूतर को कम से कम इस भारी भरकम शब्द का आसान सा मतलब बतला सकें। उसे उसकी भाषा में समझा सकें कि भईया यह होती है ग्लोबल वार्मिंगा और तुम इस तरह प्रभावित होते हो। क्या आप बतला सकते हैं कि आप किस-किस तरह से इसका असर झेल रहें हैं। शायद कबूतर के साथ कुछ अपने सहचर भी जाग जाएं। आपके जवाब के इंतज़ार में आपका रवीन्द्र।

ज़िम्मेदार कौन ... ?




ये बसों और ट्रकों के हार्न
ये लाउड स्पीकर का शोर
ये रिश्तों की खटपट
मशीनों का शोर
जल में घुलता ये ज़हर
सांसों में समाता ये ज़हर
कानों को चीरता ये शोर
तबाही का इंतज़ार न करें
स्वच्छ वातावरण की ज़िम्मेदारी
हम सब की है

परी कथा




परियों के देश की
वो कहानी भी ख़ूब थी
जिसमें थी एक परी
नाज़ों-नखरे में पली
हाथ में जादू की छड़ी
बदलने दुनिया को चली
पर क्या जादू सच्चा होता है
ऐसा सपना क्या हक़ीकत होता है।
नहीं ना !
पर मैने देखी है एक परी
जो इस दुनिया की हक़ीकत में है पली
फिर भी रहती है खिली-खिली
अपनी हंसी से हर तरफ़ बिखराती
हर पल खुशी है वो मनचली
जो हंसती है, खिलखिलाती है
मुस्कुराती, इठलाती
और रूठ भी जाती है
लेकिन झट से मान भी जाती है
सभी के दिल में उमगें जगाती है
जीने का सही अहसास दिलाती है
वो ख़ुशबू है, वो तितली है
वो बारिश है, वो बिजली है
वो सांस है, वो विचार है
वो जीवन का संचार है
रिश्ता सिर्फ बनाती नहीं
वो निभाती है
सबमें विश्वास जगाती है
जो नये उत्साह, नई उमंग
ऊर्जा और रंगों की केन्द्र है
जिसके स्वामी गजेन्द्र है
विनम्रता और मधु स्वभाव से
जिसने दिलों को जीता है
प्यार से सभी घर वाले
कहते उसे स्मिता हैं।
हम जैसो को कौन पूछता
भला ऐसे भी कोई जीता है
इसलिए मस्त रहो, पकोड़े खाओ और चाय पीओ
क्योंकि चीता भी पीता है।

फुलकारी




हर वक्त मुनासिब होता है
मंज़र मनमाफ़िक होता है
बढ़ने वाले कब रुकते हैं
मुश्किल जीवन का सौदा है
सुख पल दो पल का धोखा है
जो उठता है और लडता है
ये वक्त उसी का होता है
लक्ष्य वही हासिल करता है
जो पहला कदम बढ़ता है
डरपोक किनारे रहता है
तैराक नदी तर जाता है
दिल बाग-बाग हो जाता है
बागों में छाए हरियाली
फूलों को भी पड़ता शर्ममाना
जब हसें हमारी फुलकारी

ज़िन्दगी एक कैनवास




जिंदगी है एक कैनवास
सपने हैं रंग
ख्वाहिशों की ऊंचाईयां
हक़ीकत की जंग
बहुत हंसी है हर पल
क्योंकि तुम हो मेरे संग
तुम सांसों में, तुम धड़कन में
तुम आंखों में, तुम ही मन में
तुम सुबह में, तुम शामों में
तुम बातों मे, तुम रातों में
तुम ही तो हो जज्बातों में,
तुम गीत हो, संगीत हो
हर तूफां में, हर मुश्किल में
तुम ही तो मेरी जीत हो
तुम हवा हो, तुम पानी हो
सच्चे शायर की ग़ज़ल हो जैसे
तुम हर पल नई कहानी हो
जमुना तट पर बजती बंसी
मंदिर में बजती घंटी हो
कोई भी लट्टू हो जाए
जब मंद-मंद तुम हंसती हो
माशूका ऐसी सब चाहें
जिसमें इतनी सब ख़ूबी हो
मैं खुशनसीब, तुम मेरी हो
मेरी जानम, मेरी बीवी हो
पर याद रहे इन रिश्तों में भी
पहचान नहीं अपनी खोना
तुम मुझसे हो, तो तुमसे मैं हूँ
तुझसे ही है मेरा होना
जीवन जीने की आपाधापी में
ना ख़ुद को तुम खोने देना
हम सबको साबित करना है
अपना-अपना मानव होना
हम साथ हैं, कुछ कर पाऐंगे
हर मुश्किल से लड़ जाऐंगे
मशहूर हुए लोगों में एक दिन
अपनी भी जगह बनाऐंगे
जब मैं हूंगा साठ बरस का
और तुम होगी तिरपन की
एक दूजे में खो जाऐंगे
बातें करते बचपन की
छोड़ो-छोड़ो इतनी लंबी
बातें करें आजकल की
काम बहुत है, चिंता लग गयी
फिर महिने के वेतन की
इसलिए छोड़ बातें बेकार की,
बोलो हाथी घोड़ा पालकी, जै कन्हैया लाल की।

मानवता सिखलाएं




बिल्ली कहती म्याऊँ-म्याऊँ
रुक जा चूहे अब मैं आऊँ
तुझको मैं खा जाऊँगी
अपनी भूख मिटाऊँगी
फिर जल्दी से पेड़ पे चढ़के
चुपके से सो जाऊँगी
चूहा बोला बिल्ली मौसी
तुम तो कितनी प्यारी हो
हमको खाकर क्या पाओगी
तुम तो राजदुलारी हो
हमें मारकर पछताओगी
वापस घर कैसे जाओगी
जिस राह से तुमको जाना है
वहां बैठा कुत्ता मामा है
वो तुमको खा जाएगा
फिर तुम्हें कौन बचाएगा
आओ मिलकर रहना सीखें
दूजे का दुख भी सहना सीखें
फिर ना कोई डरेगा तुमसे
इज्ज़त तुमको देगा दिल से
साथ में हम सब खाऐगें
झूमें-नाचे-गाऐंगे
आपस में लड़ते इंसानों को
मानवता सिखलाऐंगे।

पाखी




जब नदी किनारे बैठा कोई
अंतर्मन को खोजे फंसा कोई हो अंतर्द्वन्द में,
राह ना कोई सूझे तने भवें, चेहरा गुस्से से
लाल तमतमा जाए
मुट्ठी भींचे, दांत पीसकर
सूरज को घूरे जाए
जब हो हताश, वो हो निराश और दिल घबरा जाए
वो हो बेचैन, मन व्याकुल हो
पर राह नज़र ना आए
तब चुपके से, तब धीरे से
फर्र-फर्र सी पाखी आए
एक झटके में, एक पल में वो
सारी चिंता हर जाए
वो मंद-मंद, हौले-हौले उस बरगद के
पत्तों पे रुक जाए
फिर पलकें बंद हो जाए
कूके पाखी, तुम्हें सपनों की
दुनियां में ले जाए
पंखों की होडा-होडी से
तुम्हें गगन सैर करवाए
चाहे हो कितना दूर क्षितिज
वो हवा से पेच लडाए
वो रुके नहीं, वो थके नहीं
बस उडती–उडती जाए
तुम्हें राह मिले अपनी मंज़िल की
हर इच्छा पूरी हो जाए
हर झोंका संचार करे
हर अंतर्द्वंद मिट जाए
फिर आए एक पवन हिलोरा और
नींद तेरी उड जाए
अब हर मुश्किल आसां सी दिखे
कोई कष्ट नज़र ना आए
मन केवल इतना चाहे
जीवन में सबके तू पाखी
एक नया सवेरा लाए

दिखती हो तुम गुडियों सी




दिखती हो तुम गुडियों सी
पग थिरकाते प्यानों पर
हाथों में पंखा पकडे
कुछ जापानी गुडियों सी
दिखती हो तुम गुडियों सी

आंखों से जादू बिखराती
मुझको अपने पास बुलाती
लाल गुलाबी पंख दिखाती
उन सतरंगी परियों सी
दिखती हो तुम गुडियों सी

जब मैं बैठा रात निहारूं
चांद को देखूं तुम्हें पुकारूं
सांसें छू ले याद तेरी
सनसनी हवा की लडियों सी
दिखती हो तुम गुडियों सी

हाथ तेरा माथे को चूमे
तू गाकर मुझे सुलाए
छम से आती, हंसी लुटाती
लगती हो फुलझडियों सी
दिखती हो तुम गुडियों सी

चला जा रहा था




ज़िन्दगी की इस दौड में
चिलचिलाती धूप में
बेरंग और बेरूप मैं
बस चला ही तो जा रहा था

तभी नज़र आई
उमडती हुई सी
सावन की बदली
कभी चमकती
कभी फडकती
पल-पल दमकती
जैसे हो बिजली
घटाओं के पीछे
हवाएं कह रही हैं
सुकूं अब मिलेगा
उम्मीद दे रही हैं
कल की खुशियां
कल के पल को
जैसे ज़ुबां दे रही हैं

वो पाक़, वो शफ्फाक
वो हमनशीं, वो दिलो ख़ास
चांदनी से सराबोर
कुछ और
वो कुछ और
छम-छम सी करती
मेरे क़रीब आ रही है

ग़लत हैं जो चांद सिर्फ एक बताते हैं
हमसे पूछिए, हम आपको ज़मीं पे
एक और चांद दिखाते हैं
आसमां का चांद तो केवल
रात में दिखता है
पर मेरा चांद
सुबह-शाम, दिन-रात
हर पल यूं ही चमकता है
वो आसमां का हिस्सा है
पर ये चांद ना जाने किसका है

जाने क्यों अब
रुक जाने को दिल करता है
उसे पास बुलाने
उसकी बेबाक सी बातें
सुनते जाने को दिल करता है
उसकी मासूम हंसी पे
लुट जाने को दिल करता है
उसकी निश्छल, चंचल
बेलोस हरक़तों पर
मुस्कुराने को दिल करता है
कभी झील सी आंखों में
डूब जाने को दिल करता है
और हर बार ख़ुदा से
बस यही दुआ करता है

कभी दुख उस तक ना पहुंचे
कोई आंच उसे ना आए
जीवन का हर पल उसका
खुशियों से भर जाए ॥

कभी देखा है ?




बादल को जाते, पानी की तलाश में
सहरा को तड़पते, गर्मी की आस मे
वृक्ष को खड़े, मुसाफिर की राह में
या फिर मंजिल से दूर
किसी मोड़ पर खड़े राहगीर को
एक साथी की तलाश में
सभी हैं इंतज़ार में, एक हमसफ़र की
जो साथ चले , चलता जाए
और दूर क्षितिज को पा जाए
हम भी बिस्तर में पड़े सोच रहे थे
की तभी, हर रोज़ की तरह नींद हमारे पास आई
हमने पूछा – एक काम कर सकती हो ?
क्या आज ख्वाबों में उनका रंग भर सकती हो ?
उसने मुस्कुरा कर देखा और आगोश में भर लिया
पलक झपकी तो सामने थी भोर
मौसम की ठंडक, पवन मद्धम
मुर्गे की बांग, दूधिये की साईकिल घंटी
और दूर पहाड़ी से आती – एक छवि
भेड चराती, दौड़ती, मस्ताती, महक बिखराती
नई ताज़गी से भरी, मेरे पास आकर रूकती, हांफती सी
तभी नज़र आई उसके चेहरे से टपकती पसीने की बूँद
जैसे पलाश के फूल पर भोर मैं गिरी ओस की बूँद
छूना ही चाहा था कि शर्मा गई
हम तो ख़्वाबों में थे पर भोर सचमुच आ गई
जाते जाते मगर इतना बतला गई
की वो धुंधली तस्वीर जिसकी थी
वो कोई और नहीं
तुम, सिर्फ तुम थी

मां



वो नाम जो हर बच्चे की ज़ुबां पर
सबसे पहले आता है
या कहें वो इंसान जो बच्चे को
जीने का मतलब समझाता है
मां, बच्चे को दुनिया में आने का मौक़ा देती है
देती हैं सांसे, धडकन और एक अहसास
अहसास उसके होने का
उसके वजूद का
रखती है ख़्याल उसकी हर ज़रूरत
हर सपने का
बिना किसी परवाह के
बिना घाटे और मुनाफ़े का हिसाब लगाए
उसे सिखाती है ज़मीन पर पहला क़दम रखना
बिना ये सोचे की उम्र के ढलान पर
जब उसे ज़रूरत होगी उनकी
तो क्या वो बच्चे उसके साथ खडे होंगे
क्योंकि केवल मां का ही प्यार होता है
निश्छल, निस्वार्थ और निष्कपट
इसलिए उसे भगवान का दर्जा दिया गया है
और की जाती है पूजाहम भी तुम्हें नमन करते हैं
और करते हैं कामना
जीवन की हर पहरी में
सुबह - शाम और दोपहरी में
हो जाए जो भूल कोई
बुरा नहीं तुम मानकर
माफ़ हमें फिर से कर देना
आज भी बच्चा जानकर

बस इतनी अर्ज़ हमारी है




ज़हनों से हटे झुर्री ना सही
पर मन तो बच्चा हो जाए
जंगल पे नहीं दावा हमको
इक पेड तो सच्चा हो जाए
ये सोच के नाटक करते हैं
शायद कुछ अच्छा हो जाए
अब चेहरा बदलो या शीशा
ये आपकी ज़िम्मेदारी है
अच्छा सोचो, अच्छा बोलो
बस इतनी अर्ज़ हमारी है।

साभार: सूरज जी, रंगकर्मी, जबलपुर से