Saturday, August 21, 2010

किसानों की हालत नहीं दर्शाती, मीडिया पर कटाक्ष करती है ‘पीपली लाइव’


अक्सर देखा गया है कि जिस तरह से चीज़े आपको दिखाई जाती है आप उसी नज़र से चीज़े देखने लग जाते हैं। शायद ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ। आज ही एक मित्र के साथ दौबारा फ़िल्म देखने गया। हालांकि अभी तक पढी फ़िल्म समीक्षा के मुताबिक इसमें किसानों की स्थिति और मजबूरी दिखाई गई है जबकि इसे देखने के बाद मुझे लगा कि फ़िल्म किसान से ज़्यादा मीडिया के ऊपर कटाक्ष करती है।

फिल्म में दिखाया गया है कि आज के दौर में ख़बरिया चैनल किस तरह ख़बरें तैयार करते हैं और उनका प्रसारण करते हैं। सही मायनों में ख़बर का महत्व उनके लिए क्या है यह उस दृश्य से ज़ाहिर हो जाता है जिसमें स्थानीय पत्रकार, राजधानी के पत्रकार को, एक मज़दूर किसान की उसी के द्वारा खोदे जाने वाले गढ्ढे में मौत की ख़बर देता है और शहरी पत्रकार उसे हल्के से लेते हुए कह देती है कि “उसे कौन पढना या देखना चाहता है। लोग नत्था के बारे में जानना चाहते हैं”। यानि जो बिकता है वो दिखता है।

फ़िल्म बार-बार मीडिया की कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान लगाता है। चाहे वो एक दृश्य में पीपली माता के दर्शन बताकर दो महिलाओं को सिर घुमाने के लिए कहना हो या फिर नत्था के ‘मल/शौच’ को विश्लेषण का विषय बना देना।
फ़िल्म उस समय भी ख़बरिया चैनलों और पत्रकारों पर सवालिया निशान लगाती है जब मुख्यमंत्री एक पत्रकार से चुनावों तक तय संख्या में उनके पक्ष की ख़बरें चलाने के लिए कहता है। देश में पिछले चुनावों के दौरान इस तरह की ख़बरें बार-बार सामने आईं। जो कहीं ना कहीं ख़बरों की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगाती हैं। कहीं ना कहीं वो इन ख़बरिया चैनल की असंवेदनशीलता पर भी प्रहार करती है जो स्थानीय पत्रकार को अपने मतलब के लिए अपनी ज़रूरत के मुताबिक इस्तेमाल करते हैं और जब मतलब पूरा हो जाता है तो चुपचाप निकल लेते हैं। बिना इस चिंता के की वो है कहां।

फ़िल्म का नाम पीपली लाइव भी कहीं ना कहीं मीडिया के जुडाव की ओर इशारा करता है। फ़िल्म में राजनीति की बात भी है और किसानों की भी लेकिन किसानों की बात कहीं भी कोई गहरा प्रभाव नहीं छोडती। किसानों की समस्या, उनकी मशक्कत, उनकी मजबूरी तो कहीं ढंग से प्रभाव पैदा कर ही नहीं पाई। बल्कि कहीं ना कहीं वो व्यवस्था का मज़ाक उडाती नज़र आई। नत्था को आत्महत्या के लिए मजबूर होते हुए दिखाया ही नहीं गया, बल्कि वो तो बार-बार मरने से इंकार करता है। बडे भाई के दबाव में कुछ असमंजस में, वो हां कर बैठता है।

मेरी नज़र में फ़िल्म खबरिया चैनलों का मखौल उडाती नज़र आती है कि किस तरह वो अपने स्वार्थ, अपनी पहुंच और ग्लैमर के दम पर बे सिर पैर की बातों को भी राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बना देते है। इस दबाव में किस प्रकार नेता अपनी शतरंज के मोहरे तय करते हैं और कैसे जनता एक बार फिर मूक दर्शक की तरह चुपचाप तमाशा देखती रह जाती है, ये लोग उन्हें छलते हैं और वो बेवकूफ़ बनती रहती है। तमाशा ख़त्म और सब अपने – अपने घर की ओर चल देते हैं।

Friday, August 20, 2010

सरकार है कि चेतती ही नहीं …


सरकार ने इस बार राज्योत्सव को बहुत ही भव्य स्तर पर ‘मेगा राज्योत्सव’ मनाने की घोषणा की है। सरकार के मुताबिक इस आयोजन की गूंज पूरे देश में सुनाई देगी। ज़ाहिर है एक बार फिर से करोडों रुपये खर्च होंगे और पैसे की बंदरबाट होगी। राज्योत्सव की थीम 10 वर्षो की विकास यात्रा पर केंद्रीत होगी। दरअसल सरकार ऐसे भव्य आयोजनों के ज़रिए जनमानस पर अपनी सफ़लताओं और उपलब्धियों का जामा चढाकर इस बार छत्तीसगढ शाइनिंग का रंग चढाना चाहती है और तेज़ी से हावी होते बाज़ारवाद के दौर में छत्तीसगढ को एक ब्रांड बनाना चाह्ती है।

मुख्यमंत्री ने बडे जोशो-ख़रोश के साथ इस अवसर पर एक डाक टिकट भी जारी करने की इच्छा ज़ाहिर की है। उम्मीद है कि उसे केन्द्र से स्वीकृति भी मिल जाएगी। पर क्या इससे उन मासूमों का दर्द कम हो जाएगा जिन्हें जीने के लिए रोज़ी रोटी नहीं मिल पा रही है। वो बात दीगर है कि काग़ज़ों में ना तो ये भूख और ना ही भूखे नज़र आते हैं।

चाहे विधानसभा में हंगामा हो और चाहे वो ग़रीब दवा और इलाज के अभाव में स्वर्ग सिधार जाएं लेकिन इन तक शायद उनका दर्द और उनकी कराह की आवाज़ नहीं पहुंच पाती है। इस मुद्दे को बाक़ायदा इलाके के विधायक द्वारा पुरज़ोर तरीक़े से उठाया गया लेकिन विभाग के मंत्री जी ने मामले को बहुत ही हल्के लेते हुए सबकुछ सामान्य होने का दावा कर दिया।

प्रदेश में दिन ब दिन बढती नक्सली वारदातों के बीच होने वाली मौतें अब महज़ एक आंकडा बनकर रह गयी हैं जो हर रोज़ कुछ और बढ जाती है। मगर सवाल यह है कि इनमें से कौन उन मासूम, बेसहारा गरीब आदिवासियों के घर जाता है जिनकी ज़िंदगी का एकमात्र सहारा अचानक किसी ना किसी की गोली की भेंट चढ जाता है। फिर कुछ बयानबाज़ी होती है और यह महज़ एक मामला बनकर कहीं फाइलों में ग़ुम हो जाता है

एक बार फिर सरकार उपलब्धियों का ज़ोरदार जश्न मनाते समय भूल जाएगी कि हर साल की तरह इस बार भी बहुत से स्कूलों में बैठने आधारभूत ज़रूरतें मुहैया नहीं करवा सकी है। इस बार भी थोडी सी ही बरसात ने स्कूलों को पानी से सराबोर कर दिया और कोई रास्ता ना देख शिक्षकों को कई दिन बच्चों की छुट्टी करनी पडी। यह बात मैं किसी दूरस्थ अंचल में बसे छोटे गांव की नहीं कर रहा हूं बल्कि प्रदेश की राजधानी रायपुर की ही कर रहा हूं और इलाके के विधायक आज सरकार में मंत्री हैं।
बस्तर संभाग में मलेरिया और उल्टी दस्त से हुई मौतें किसी से छुपी नहीं हैं। लोग आज भी बेरोज़गारी के आगे घुटने टेकने को मजबूर हैं और पलायन कर रहे हैं, इस बात का जीता जागता उदाहरण लेह से लौटे वो दर्जनों लोग हैं जिनका हाल पूछने खुद मंत्री जी बिलासपुर पहुंचे थे। किसान बेबस हैं और प्रदेश के ही एक इलाके पंखाजूर के किसानों ने तो सरकार को आत्महत्या तक की धमकी दे डाली है। बेशक प्रदेश में किसी किसान की आत्महत्या की घटना नहीं हुई है लेकिन अगर ऐसा ख्याल भी उसके दिमाग में आता है तो विकास के दावे कितने खोखले नज़र आते हैं, शायद कहने की ज़रूरत नहीं है।

राजधानी की सडकों के गढ्ढे दिन ब दिन बढते जा रहे हैं लेकिन सरकार नए बस रहे रायपुर की तस्वीरें दिखाती हैं वहां की उन चमचमाती सडकों को दिखाते इतराती है जिन पर अभी चलने को कोई नहीं है।

जिस प्रदेश में हाउसिंग बोर्ड किसानों की ज़मीन औने-पौने दामों में लेकर करोडों में बेचता है वह प्रदेश तो सचमुच विकासशील कहलाएगा ही। दूसरे प्रदेशों में हाउसिंग बोर्ड लोगों को सस्ते और सुविधाजनक मकान मुहैया कराने के लिए जाने जाते हैं वहीं छत्तीसगढ हाउसिंग बोर्ड नए रायपुर में पचास लाख तक के मकान बना रहा है क्योंकि कहीं ना कहीं वो ख़ुद जानता है कि सरकार की कथनी और करनी में कितना अंतर है। इसीलिए उसे उन 36 लाख गरीब परिवारों की बजाए केवल प्रदेश के एक चौथाई लोगों की ही चिंता है।

अगर इसे ही विकास कहा जाता है तो सचमुच प्रदेश ने बहुत विकास किया है, बहुत उपलब्धियां हासिल की है। वाकई इसे किसी ना किसी तरह प्रदेश की भाजपा सरकार की जीत कहा जाएगा। जीत का जश्न तो झूमकर मनाया ही जाना चाहिए।

Monday, August 16, 2010

ब्रांड बन गए हैं आमिर खान



एक बिज़नेस चैनल पर एक सफ़ल उद्योगपति से बातचीत देख रहा था जिसमें उन्होनें कहा था कि “एक नाम को ब्रांड बनाने में बहुत मेहनत लगती है और उससे भी ज़्यादा मशक्कत करनी पडती है उसे बनाए रखने में, कई बार तो ज़िन्दगी लग जाती है”। कार्यक्रम देखते हुए लगा कि बडे लोग हैं, बडी-बडी बातें करते ही हैं। जब आमिर ख़ान प्रोडक्शन की नई फ़िल्म “पीपली लाइव” देखी तो लगा कि उसमें कितनी सच्चाई है। आज आमिर खान का नाम फ़िल्म की सफ़लता की गारंटी बनता जा रहा है। कभी अलग-अलग परिस्थितियों की वजह से इसमें चूक भी हो सकती है लेकिन कम से कम इसमें चूक नहीं होती कि फिल्म बेहतर बनी होगी और इसकी गुणवत्ता और संवेदनशीलता को लेकर किसी तरह की कोई कोताही नहीं बरती गई होगी।

आमिर ख़ान का नाम शायद इसी लिए आज एक ब्रांड की तरह स्थापित हो गया है। फिर चाहे वो प्रोड्युसर के तौर पर ही क्यों ना जुडा हो। ऐसे में फ़िल्म से दर्शकों की उम्मीदें बढ जाना स्वभाविक है। ‘पीपली लाइव’ भी कहीं ना कहीं यही साबित करती है कि एक साधारण सी कहानी को भी अगर अच्छे से फिल्माया जाए तो वो दर्शकों का ना केवल मनोरंजन करती है बल्कि निर्देशक द्वारा दिया जाने वाला संदेश भी उन तक पहुंचाती है।

फिल्म का प्रमुख किरदार नत्था दरअसल उन किसानों का प्रतिनिधित्व करता है जो परिस्थितियों के आगे अपने को बेबस महसूस करते हैं और अंत में आत्महत्या करने को मजबूर हो जाते हैं। इस झूठी उम्मीद के साथ कि शायद इसके बाद उनके परिवारवाले सुखी रह पाएँ।

फ़िल्म कहीं नौकरशाही और राजनीति पर प्रहार करती है तो दूसरी ओर टीआरपी की आपा-धापी के नशे में चूर मीडिया की कार्यप्रणाली पर भी प्रश्न चिन्ह लगाती है। जिनकी जल्दबाज़ी में समाज की बुरी खबरें तो सुर्खियों में छाई रहती हैं लेकिन इस बीच ज्वलंत मुद्दे कहीं पीछे छूट जाते हैं। फिल्म में समाज की सामाजिक और राजनितिक समस्या को बहुत ही सटीक ढंग से दिखाया गया है। बेटे द्वारा अपने पिता को आत्महत्या करने के लिए कहना, मनोरंजन नहीं करता बल्कि एक विडम्बना को प्रदर्शित करता है।

फिल्म का इतना प्रचार किया गया है कि यह फिल्म, बडी फिल्मों की श्रेणी में आ गई है भारत में पीपली लाइव के छह सौ प्रिंट तथा अन्य देशों में सौ प्रिंट रिलीज किए गए। यह बात ध्यान देने बाली है कि बगैर किसी स्टार के सात सौ प्रिंट के साथ पीपली लाइव रिलीज की गई और टीवी चैनलों पर दिखाई जा रही ख़बरों के मुताबिक फ़िल्म ने पिछले दो दिन में ही सात करोड का बिज़नेस कर लिया है। बताया जाता है कि फ़िल्म के सेटेलाइट और संगीत अधिकार बेचकर आमिर पहले ही करीब पंद्रह करोड रुपये जुटा चुके हैं। ग़ौरतलब यह भी है कि फ़िल्म की लागत दस करोड रुपये बताई जा रही है।

‘पीपली लाइव’ दरअसल एक वैचारिक और राजनीतिक फिल्म है। कहने को तो भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता है, लेकिन किसानों की माली हालत बहुत खराब है। उनके लिए कई योजनाएँ बनाई जाती हैं, लेकिन उन तक पहुँचने के पहले ही योजनाएँ दम तोड़ देती हैं। आज भी अलग-अलग प्रदेशों से हर साल खेती छोड़कर लाखों किसान जीविका उपार्जन और अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए पलायन करते हैं।

सरकारें चाहे जितना पलायन से इंकार करे और विकास के जितने भी बडे-बडे दावे करें लेकिन उनकी पोल उस वक्त खुल जाती है जब पलायन किए हुए किसान या दूसरे निरीह लोग किसी कारणवश वापस आते हैं। उस समय अपनी राजनैतिक रोटियां सेकनें यही नेता उनके पास जाते हैं और एक बार फिर घोषणाएं कर आते हैं। उन मजबूरों के साथ तस्वीरें खिंचवाते हैं और वहां चंद सिक्के छोडकर हमदर्दी जता आते हैं। हमारे नेतागण फिर से भूल जाते हैं कि चंद दिनों की रोटियों का इंतज़ाम तो कर आए लेकिन उन्हें रोज़गार मुहैया आज भी नहीं करवाया? शायद इतना सोचने की फुर्सत ही कहां होती है।

अपने ही मुंह अपना गुणगान करने वाले ये नेतागण भूल जाते हैं कि जिस प्रदेश की जनसंख्या यह लोग दोण करोड दस लाख बताते हैं उसी के 36 लाख परिवारों को गरीबी रेखा के नीचे बताकर एक रुपये और दो रुपये किलो में चावल उपलब्ध करवाने का गुणगान ख़ुद ही करते हैं। ऊपर से यह दंभ भी भरते हैं कि प्रदेश की औसत आय दस हज़ार से ऊपर है। शायद यह भूल जाते हैं कि जनता इतनी भी बेवकूफ नहीं है साहब, वो सब जानती है कि अगर एक औसत परिवार में चार लोग भी माने जाएं तो इन्हीं के आंकडों के मुताबिक करीब डेढ करोड की जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे जीती है। ऐसे में कैसे विकास की बात करते हैं यह लोग? इसी तरह नत्था का व‌र्त्तमान हमें झकझोरता है।

यह फिल्म भारत के गरीब लोगों के दुखद जीवन और पलायन की गाथा है जिस पर राजनीतिक रोटियां सेंकनेवालों की कमी नहीं है। नेता, नौकरशाह, बिचौलिए, सरकारी बाबू, मीडिया और आसपास के लोग सभी अपने-अपने लाभ की जुगत में रहते हैं। कई कलाकारों द्वारा तैयार किया फिल्म का संगीत, भारतीय लोकसंगीत और लोकगीतों की मीठी चाशनी कानों में घोल देता है। संवाद बहुत ही सरल-सहज और स्वभाविक हैं शायद इसलिए गहरा प्रभाव पैदा करते हैं।

आप भी अगर अपने विचार देंगे तो हमें विषयों को समझने में मदद मिलेगी। आपकी प्रतिक्रिया हमारे लिए महत्वपूर्ण होती हैं।

Friday, August 13, 2010

अपने ही नत्था को देखने नहीं पहुंचे कलाकारों के शुभचिंतक



अपनी रिलीज़ से पहले ही चर्चित हो चुकी फ़िल्म ‘पीपली लाइव’ दर्शकों को जुटा पाने में नाक़ामयाब रही। पूरे देश की तो कह नहीं सकते लेकिन कम से कम छत्तीसगढ की राजधानी रायपुर में तो फ़िल्म दर्शकों के अभाव में‘चारो खाने चित’ नज़र आई। दर्शकों का आलम यह रहा कि फ़िल्म के पहले दो शो में महज़ दो दर्जन लोग ही सिनेमा हाल में नज़र आए।

अपने ओंकार, और हमारे नत्था के नाम से बडी-बडी शेखियां बघारते तथाकथित रंगकर्मी शुभचिंतक तक फ़िल्म को देखने सिनेमा हाल तक नहीं पहुंचे। वो लोग जो कलाकारों के हितों की आवाज़ उठाने का दंभ भरते हैं, उन तक ने फ़िल्म को देखना गंवारा नहीं किया। अब इसे फ़िल्म की कमी कहा जाए या उन ठेकेदारों का उदासीन रवैया इसका फैसला आप ख़ुद ही करें तो बेहतर है।

वैसे आपको एक बात बता दें कि फ़िल्म हर तरह से एक उत्कृष्ठ निर्माण कही जा सकती है। फ़िल्म अंत तक दर्शकों को बांधे रखती है और सबसे बडी बात यह है कि कहीं भी फ़िल्म की गति को धीमा नहीं पडने देती। जहां तक बात है ओंकार दास मानिकपुरी की तो उसकी तारीफ़ तो फ़िल्म के निर्माता, एक सफ़ल और सक्षम अभिनेता आमिर खान खुद कर चुके हैं जिसे किसी भी हाल में अतिश्योक्ति नहीं कहा जा सकता।

निर्देशिका के कुशल निर्देशन ने कहीं भी यह ज़ाहिर नहीं होने दिया कि यह उनकी पहली फ़िल्म है और इससे पहले वे फ़िल्म जगत से सीधे नहीं जुडी रहीं है। ग़ौरतलब है कि फ़िल्म पहले ही ‘डरबन फ़िल्म समारोह’ में सर्वश्रेष्ठ फीचर फ़िल्म का पुरस्कार जीत चुकी है।

Tuesday, August 03, 2010

कुछ भी तो नहीं

आज अपना ही ब्लाग देखा तो ध्यान आया कि इतने दिनों से कुछ नहीं लिखा। वैसे सच कहूं लिखने को तो आज भी कुछ नहीं है। आज गया था साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित एक रचना पाठ में। कवि और लेखकों का एक अच्छा ख़ासा जमावडा देखकर अच्छा भी लगा और हैरानी भी हुई कि साहित्य गोष्ठी में इतने लोग ...? वो भी सुबह से लेकर शाम तक . . . ?

देखकर अच्छा लगा। बहुत बडे और नामी लोग भी शामिल हुए थे पर बताते हुए दुख होता है कि ज़्यादातर कवि और लेखक प्रभावित नहीं कर पाए। केवल कुछ लोग ही अपनी रचनाओं से लोगों के दिलों में कुछ उथल-पुथल मचा सके। वैसे श्रोताओं ने अपने-अपने परिचित लेखकों को रस्म के मुताबिक बधाई ज़रूर दी। अब वो कितनी सही थी और कितनी खुश करने की कोशिश या फिर .... अब यह तो वे ही ज़्यादा समझ सकते हैं। ख़ैर हमें इससे कोई मतलब भी नहीं। हम किसी का नाम तो नहीं लेंगे लेकिन कुछ रचनाएं बहुत बेहतर लगी।

एक पुलिस वाले शख्स की क़लम से निकली कुछ संवेदनशील कविताएं सचमुच सोचने पर मजबूर कर देती हैं। वे हत्या और आत्महत्या का मतलब बडी गहराई से समझाती हैं। वो प्रश्न भी खडा करती हैं कि और हमीं से पूछती हैं आप किधर जाएंगे ? एक दूसरे साहब बडी ही शालीनता से अपनी बातें रखते कुछ उग्र नज़र आए।

एक लेखक ने अपनी रचना में अपने ही प्रदेश की एक रेल का ज़िक्र करते हुए अपने अनुभव को जैसे कहानी में उतारा था और बडे ही बेहतर प्रस्तुतिकरण के माध्यम से कहानी का मर्म श्रोताओं तक पहुंचाया था।

ख़ैर कुल मिलाकर यह गोष्ठी एक सकारात्मक प्रयास रहा। उसके लिए आयोजकों को बधाई।