Sunday, May 02, 2010

ग्लोबल वार्मिंग


पत्ते सूखे जाते हैं
बादल ना अब गरजाते हैं
बेटी की शादी, मुन्ने की पढाई
घर का खर्चा, गेहूं की पिसाई
पेट्रोल की क़ीमत, छत पे दीमक
जेबें खाली, हर चीज़ की किल्लत
परेशान सब नज़र आते हैं
इतने पर भी हंसते गाते
बिज़लरी की बोतल लिए हाथ में
बडी बडी गाडी से उतरकर
एयरकंडीशन हाल में जाकर
ज़ोर-ज़ोर से, हाथ नचाकर
कुछ लोग हैं जो चिल्लाते हैं
पानी की किल्लत, गर्मी का झंझट
बढा-चढाकर, ज़ोर-ज़ोर चिल्लाते हैं
सूट पहनकर, प्रेस बुलाकर
तरह-तरह के पोज़ बनाकर
वो तस्वीरें खिंचवाते हैं
फिर सारी परेशानी जोड-जाडकर
इसे ग्लोबल वार्मिंग बतलाते हैं
खिडकी में बैठा देख कबूतर
ये फुर्र से उसे उडाते हैं
जो अब तक बैठा सोच रहा था
इस सब में मेरी ग़लती कहां है
क्या मैने काटे जंगल
क्या मैने बसाए कांक्रीट नगर
क्या मैं हूं बहाता इन नदियों में
उद्योगों से निकलता प्रदुषित जल
क्या मैं हूं बनाता अपनी फैक्टरियों में
बंदूकें, गोलियां और बम
मैने तो नहीं डाली थी खेतों में रसायनिक खाद
मैने तो नहीं थे कराए दंगे और फसाद
फिर मुझे क्यों उडाया
फिर से तोड दिया एक पल में
घर मुश्किल से था बनाया
तुम्ही कहो किससे पूंछू
क्यों हो गए तुम सब मौन
कहो मुझे, बतलाओ तो
है इसका ज़िम्मेदार कौन . . . ?

3 comments:

श्यामल सुमन said...

आगे बढ़ी है दुनिया मौसम बदल रहा है
बदले सुमन का जीवन इक ऐसा पहर होता

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com

vandana gupta said...

विचारणीय प्रश्न्।

मनोज कुमार said...

ज्वलंत समस्या।