Wednesday, May 26, 2010

हिचक क्यों है ?




वर्ष 2011 की जनगणना शुरू हो चुकी है। लाखों सरकारी कर्मचारियों को इस मुहिम में लगाया गया है। लोग घर-घर जाकर आवश्यक जानकारी इकट्ठा कर रहे हैं। सभी को एक सीमित लक्ष्य दिया गया है और एक निश्चित समय में उन्हें अपना यह लक्ष्य पाना है। सरल शब्दों में कहें तो एक तय समय सीमा में तय संख्या के लोगों की निर्धारित जानकारी एकत्र करनी है। ज़ाहिर है कि यह जानकारी आमतौर से हर दस साल के बाद इकट्ठा की जाती है और फिर उसके आधार पर भविष्य की योजनाएं बनाई जाती है। आज भी देश की साठ फीसदी से ज़्यादा आबादी गांवों में रह्ती है। पर क्या इसे शुरू करने से पहले सरकारों (केन्द्र और राज्य सरकारें) को नहीं चाहिए था कि पहले लोगों को जागरुक करें। लोगों को सचेत करे कि आखिर यह क्यों किया जा रहा है। इसके आधार पर कैसे सरकारें लोगों की सुविधाओं और सुचारू ज़िन्दगी के लिए योजना तैयार करती हैं। एक फार्म के ज़रिए फलां जानकारी मांगी जाएगीं। आप चाहें तो आपसे जानकारी मांगने वाले व्यक्ति से उसका पहचान पत्र मांग सकते हैं। और सबसे बढकर यह कि जानकारी मांगने आने वाला व्यक्ति एक सरकारी कर्मचारी है और इस चिलचिलाती धूप के बीच सरकारी ज़िम्मेदारी निभाने आपके पास आया है। कृपया उससे घबराएं नहीं, उससे बद्त्तमीज़ी ना करें बल्कि थोडा सहयोग करें। यह जानकारियां आप ही के भावी भविष्य की योजनाओं के लिए एकत्र की जा रही हैं।

कुछ ऐसे लोग मिले जिन्होने बताया कि भाई साहब लोग ऐसे दुत्कारते हैं जैसे हम चोर उचक्के हैं। कई लोग तो जानकारी देने से साफ इंकार कर देते हैं। कुछ बद्त्तमीज़ी करते हैं तो कुछ तो देखते ही दरवाज़ा बंद कर लेते हैं। जब इनमें से एक व्यक्ति जब हमारे घर आया और घंटी बजाई तो हमने बाहर निकलकर पूछा- हां भई कौन हो ? क्या चाहिए ? वो कुछ सकुचाया सा नज़र आ रहा था। हमारे कुछ भी और पूछने से पहले ही उसने अपना कार्ड निकालकर दिखाया और बताने लगा कि भाई साहब सरकारी काम है, हमारी मजबूरी है, क्या करें पूछना पड रहा है । हमने उसे आराम से बैठने को कहा। वो आदमी सकुंचाता हुआ बैठ गया और हमें देख रहा था कि कहीं हम ..... हमने पूछा भई बैठो घबराओ मत, पानी पियोगे ? वो पहले सोचता रहा और फिर बोला .... जी! हमें लगा तो बहुत अजीब लेकिन उसकी घबराहट और बेचैनी का सबब नहीं समझ पा रहे थे। उसने पानी पिया कुछ सहज हुआ। हमने कहा बताइये क्या जानना चाहते हैं ? वो पहले तो औपचारिक बातें करता रहा, एक बार फिर हमें अपना कार्ड दिखाया और बोला - भाई साहब क्या करें, काम है, करना ही है। हमने कहा वो तो ठीक है पर आप कुछ नार्मल नहीं लग रहे हो ? वो बोला नहीं-नहीं सब ठीक है। इतने में श्रीमति जी चाय और बिस्कुट ले आईं। हमने चाय उसके सामने बढाई और कहा अब बताइये। वो कुछ और सहज हुआ। बातें हुई और उसने सारी जानकारियां इकट्ठा की और उठ गया। पर अब उसके चेहरे पर एक सुकून नज़र आ रहा था।

जाते-जाते उसने कहा भाई साहब आपसे पहले पिछले मौहल्ले में एक घर पर होकर आया था, वहां कल भी गया था तो मुखिया ने पत्नी से कहला भेजा 'वो घर पर नहीं है' जबकि वो अंदर ही थे। आज फिर से गया तो वो लडने बैठ गए। एक पहलवान से शख्स आए और धमकने लगे कि जाओ यहां से, मकान मालिक यहां नहीं रहता, हम तो किराएदार हैं पिछले पांच साल से, हमें कोई जानकारी नहीं देनी। जब उन्हें समझाने की कोशिश की गई तो वो आंख दिखाने लगे। बस इसी लिए थोडी सकुचाहट थी। आपका धन्यवाद।

हमने सोचा हमने तो ऐसा कुछ नहीं किया कि वो हमारा धन्यवाद करें। लेकिन उसके चेहरे के सुकून को देखकर इतना अहसास हुआ कि आप केवल अपनी ज़िम्मेदारी सही तरह से निभाते हैं तो भी लोग खुश होते हैं। तो क्या देश के प्रत्येक नागरिक को इस कार्य में सहयोग नहीं करना चाहिए ? बिलकुल करना चाहिए। आप बेशक चाय ना पिलाएं मगर अगर प्यार से बोल भर लेंगे तो उसकी हिम्मत बनी रहेगी और अगर इस चिलचिलाती धूप में एक गिलास पानी दे देंगे तो उसका धन्यवाद भी मिलेगा और एक सबाब भी।

आप क्या कहते हैं ?

Saturday, May 22, 2010

ये क्या हो रहा है ?

आज अचानक मेरा ब्लाग दिखना बंद हो गया .... फिर अचानक एक बार दिखा तो उसमें से सभी तस्वीरें गायब थी .... क्या कोई बताएगा कि ये क्या है और क्यों हो रहा है ? क्यों एक सरकार की तरह एक आम आदमी की आवाज़ दबाई जा रही है, जबकि हमारी तो किसी से कोई लडाई भी नहीं है . . . थोडा सा और कष्ट आप लोगों को कि इसका कोई हल है तो बताएं ? मेल भी कर सकते हैं

धन्यवाद,

रवीन्द्र

Thursday, May 20, 2010

मेरा क्या कसूर ?


हक़ की हुंकार लगाते हैं
हक़ का जो शोर मचाते हैं
वे ज़ोर-ज़ोर चिल्लाते हैं
उन मासूमों को, निर्दोषों को
जन-जन को मारे जाते हैं
जिन आदिवासी और दलित वर्ग के
अधिकारों का युद्ध बतलाते हैं
कभी उनके घर ये जाते हैं ?
उन अबलाओं की, मासूमों की
आंखों के निश्छल आंसू
क्या इनके दिल में
बेचैनी, बेचारगी और मजबूरी का द्वन्द उठाते हैं ?
मानव अधिकारों के रखवाले
क्यों ऐसे में आवाज़ उठाते
धरना देते, जनसमर्थन जुटाते नज़र नहीं आते हैं ?
सवाल यह है कि ये मरने वाले, जान गवाने वाले
क्या नहीं थे किसी के बेटे, बहु या बच्चे
क्या पेड, बस और ज़मीन पर बिखरे चिथडे
उनका दिल नहीं दहलाते है
क्यूं उनकी चीख, उनकी पुकार
उनकी टीस, उनकी कराह
ये संगदिल नहीं सुन पाते हैं
या फिर उनकी आवाज़,
ये सुनना नहीं चाहते हैं
सुनकर भी अनसुना कर जाते हैं
जिनके हक़ की लडाई
गोली, बम और विस्फोट के द्वारा
दुनिया को सुनवाते हैं
जिन्हें अनदेखा ये अक्सर कर जाते हैं
मरने वालों के पीछे बचे रहने वाले
अब इनसे पूछना चाहते हैं
मेरा कसूर क्या है ? मैने तुमसे छीना क्या है ?
तुम्ही कहो आखिर अब मेरी नियति क्या है ?
कहो मुझे, बतलाओ तो
आखिर मेरा कसूर क्या है ?

Monday, May 10, 2010

छत्तीसगढ़ फिल्म इंडस्ट्री


छत्तीसगढ फिल्म इंडस्ट्री की दशा और दिशा ? इस पर आप क्या और कितना जानते हैं ? कृपया लिखें

Sunday, May 09, 2010

मां ! तुझसा नहीं कोई रिश्ता



लो एक बार फिर से आ गया मां-दिवस
एक बार फिर से सुबह सुबह दी मुबारक़बाद उन्हें फ़ोन पर
और बताया, आज है मां का दिन यानि मां-दिवस
जानती तो नहीं कब और क्यों शुरू हुआ ये दिन
जानती बस इतना हूं, है अधूरा हर दिन, तुम बिन
दूर हूं, पर तुम हो दिल में हर पल-छिन
है दुआ, रहे तुम्हारी ममता छाया हम पर बरसों बरस
और बस रहें गुज़रते यूं ही दिन
ख्याल आता है कभी–कभी
कैसे काल के कपाल में समा गया था
हम सबका रखवाला
बुला लिया था जिन्हें ईश्वर ने अपने पास
और छोड दिया था इस जहां में हमें
बिलकुल बेसहारा
इस आंधी, तूफां और पतझड के बीच
तब तुम बनी हमारी ढाल
नहीं चली इस बेदर्द, बेरहम ज़माने में
किसी की कोई चालाकी कोई चाल
हमें तो पता ही नहीं चला
कि तुमने सहा क्या–क्या
हमें तो तुमने महसूस भी नहीं होने दी
उसकी तपिश
तुम्हारे सीने जो जला, उसका धुआं
तुमने तो अपनी हर कोंपल को
खिलने, फलने फूलने का
पूरा और हर संभव मौक़ा दिया
तुमसे बनी शाखाएं आज बढ चुकी हैं
जो किसी और की होकर
तुम्ही से दूर हो चुकी हैं
फिर सोचा शाखाएं बडी चाहे जितनी हो जाएं
पर क्या पेड की जडों से दूर है हो सकती
चाहे कोई गुलशन महकाए पर
उसकी महक तुमसे अलग नहीं हो सकती
जैसे रगो में ख़ून बनकर बहते
तुम्हारे दूध की कोई क़ीमत नहीं हो सकती
नहीं हो सकता दुनिया में तुझसा कोई फरिश्ता
शायद इसीलिए कहते हैं कि
मां ! तुझसा नहीं कोई रिश्ता

लता

Tuesday, May 04, 2010

पोल खोल


आजकल आए दिन ख़बरें सुनने को मिलती हैं कि फलां जगह फलां महात्मा, साधु, संत या फ़कीर यह करते पकडा गया, सेक्स कांड का खुलासा, इतनी संपत्ति और इतने घोटालों में सांठ-ग़ांठ। आखिर देश की भोली भाली जनता की भावनाओं से खिलवाड करने वाले ऐसे लोगों को कैसे समाज से खदेडा जाए। क्या कानूनी प्रक्रिया के तहत धीरे-धीरे इसे रोका जा सकता है या फिर ज़रूरत है एक सामाजिक बदलाव की। या फिर इस सबसे बढकर अपनी मासूम जनता को जागरुक करने की जो 21 वीं सदी में पहुंचने के बावजूद अंधविश्वास के मायाजाल में फंस जाती है और तरह तरह के तिकडमी हथकंडे अपनाने लगती है। केवल इस उम्मीद में कि इसके बाद उनकी ज़िंदगी में सबकुछ ठीक हो जाएगा।

केवल कहने से काम नहीं चलेगा यह भी बताना होगा कि एक आम इंसान इसके लिए कैसे योगदान दे सकता है। योगदान बडा
हो या छोटा, सवाल हर इंसान को जोडने का है ताकि इस बुराई को जड से दूर हटाने का प्रयास तो किया जा सके।


कृपया बताएं आप इस बारे में क्या सोचते हैं ?

Monday, May 03, 2010

कुछ कहें तो . . .

कृपया बतलाएं आखिर क्या है यह ग्लोबल वार्मिंग और कौन है इसका ज़िम्मेदार ? शायद आप ही हमें समझा पाएं ताकि हम उस कबूतर को कम से कम इस भारी भरकम शब्द का आसान सा मतलब बतला सकें। उसे उसकी भाषा में समझा सकें कि भईया यह होती है ग्लोबल वार्मिंगा और तुम इस तरह प्रभावित होते हो। क्या आप बतला सकते हैं कि आप किस-किस तरह से इसका असर झेल रहें हैं। शायद कबूतर के साथ कुछ अपने सहचर भी जाग जाएं। आपके जवाब के इंतज़ार में आपका रवीन्द्र।

Sunday, May 02, 2010

ग्लोबल वार्मिंग


पत्ते सूखे जाते हैं
बादल ना अब गरजाते हैं
बेटी की शादी, मुन्ने की पढाई
घर का खर्चा, गेहूं की पिसाई
पेट्रोल की क़ीमत, छत पे दीमक
जेबें खाली, हर चीज़ की किल्लत
परेशान सब नज़र आते हैं
इतने पर भी हंसते गाते
बिज़लरी की बोतल लिए हाथ में
बडी बडी गाडी से उतरकर
एयरकंडीशन हाल में जाकर
ज़ोर-ज़ोर से, हाथ नचाकर
कुछ लोग हैं जो चिल्लाते हैं
पानी की किल्लत, गर्मी का झंझट
बढा-चढाकर, ज़ोर-ज़ोर चिल्लाते हैं
सूट पहनकर, प्रेस बुलाकर
तरह-तरह के पोज़ बनाकर
वो तस्वीरें खिंचवाते हैं
फिर सारी परेशानी जोड-जाडकर
इसे ग्लोबल वार्मिंग बतलाते हैं
खिडकी में बैठा देख कबूतर
ये फुर्र से उसे उडाते हैं
जो अब तक बैठा सोच रहा था
इस सब में मेरी ग़लती कहां है
क्या मैने काटे जंगल
क्या मैने बसाए कांक्रीट नगर
क्या मैं हूं बहाता इन नदियों में
उद्योगों से निकलता प्रदुषित जल
क्या मैं हूं बनाता अपनी फैक्टरियों में
बंदूकें, गोलियां और बम
मैने तो नहीं डाली थी खेतों में रसायनिक खाद
मैने तो नहीं थे कराए दंगे और फसाद
फिर मुझे क्यों उडाया
फिर से तोड दिया एक पल में
घर मुश्किल से था बनाया
तुम्ही कहो किससे पूंछू
क्यों हो गए तुम सब मौन
कहो मुझे, बतलाओ तो
है इसका ज़िम्मेदार कौन . . . ?

ज़िम्मेदार कौन . . . ?


ये बसों और ट्रकों के हार्न
ये लाउड स्पीकर का शोर
ये रिश्तों की खटपट
मशीनों का शोर
जल में घुलता ये ज़हर
सांसों में समाता ये ज़हर
कानों को चीरता ये शोर
तबाही का इंतज़ार न करें
स्वच्छ वातावरण की ज़िम्मेदारी
हम सब की है