
हक़ की हुंकार लगाते हैं
हक़ का जो शोर मचाते हैं
वे ज़ोर-ज़ोर चिल्लाते हैं
उन मासूमों को, निर्दोषों को
जन-जन को मारे जाते हैं
जिन आदिवासी और दलित वर्ग के
अधिकारों का युद्ध बतलाते हैं
कभी उनके घर ये जाते हैं ?
उन अबलाओं की, मासूमों की
आंखों के निश्छल आंसू
क्या इनके दिल में
बेचैनी, बेचारगी और मजबूरी का द्वन्द उठाते हैं ?
मानव अधिकारों के रखवाले
क्यों ऐसे में आवाज़ उठाते
धरना देते, जनसमर्थन जुटाते नज़र नहीं आते हैं ?
सवाल यह है कि ये मरने वाले, जान गवाने वाले
क्या नहीं थे किसी के बेटे, बहु या बच्चे
क्या पेड, बस और ज़मीन पर बिखरे चिथडे
उनका दिल नहीं दहलाते है
क्यूं उनकी चीख, उनकी पुकार
उनकी टीस, उनकी कराह
ये संगदिल नहीं सुन पाते हैं
या फिर उनकी आवाज़,
ये सुनना नहीं चाहते हैं
सुनकर भी अनसुना कर जाते हैं
जिनके हक़ की लडाई
गोली, बम और विस्फोट के द्वारा
दुनिया को सुनवाते हैं
जिन्हें अनदेखा ये अक्सर कर जाते हैं
मरने वालों के पीछे बचे रहने वाले
अब इनसे पूछना चाहते हैं
मेरा कसूर क्या है ? मैने तुमसे छीना क्या है ?
तुम्ही कहो आखिर अब मेरी नियति क्या है ?
कहो मुझे, बतलाओ तो
आखिर मेरा कसूर क्या है ?
6 comments:
सच है ...उन गोली चलाने वालों से पूछो कि जिनको उन्होंने मार डाला उनका क्या कसूर था?
हक कि आवाज़ सुनानी है तो वहाँ सुनाएँ जहाँ से हक मिलना है....टीस भरी रचना ...
रविन्द्र गोयल जी आपके कलम की धार पैनी है. आपका सीजीन्यूज अपडेट भी देखा. धन्यवाद.
वाह! रवि जी बहुत बढ़िया आपकी पुरानी आदत को एक मुकाम मिल गया लगता है। वाह चलते रहिए साथ-साथ।
सच है, हार्दिक बधाई.
ढेर सारी शुभकामनायें.
सच है, हार्दिक बधाई.
ढेर सारी शुभकामनायें.
सच है, हार्दिक बधाई.
ढेर सारी शुभकामनायें.
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