Tuesday, April 06, 2010

तुम थी . . .



कभी देखा है ?
बादल को जाते, पानी की तलाश में
सहरा को तड़पते, गर्मी की आस मे
वृक्ष को खड़े, मुसाफिर की राह में
या फिर मंजिल से दूर
किसी मोड़ पर खड़े राहगीर को
एक साथी की तलाश में
सभी हैं इंतज़ार में, एक हमसफ़र की
जो साथ चले , चलता जाए
और दूर क्षितिज को पा जाए
हम भी बिस्तर में पड़े सोच रहे थे
की तभी, हर रोज़ की तरह नींद हमारे पास आई
हमने पूछा – एक काम कर सकती हो ?
क्या आज ख्वाबों में उनका रंग भर सकती हो ?
उसने मुस्कुरा कर देखा और आगोश में भर लिया
पलक झपकी तो सामने थी भोर
मौसम की ठंडक, पवन मद्धम
मुर्गे की बांग, दूधिये की साईकिल घंटी
और दूर पहाड़ी से आती – एक छवि
भेड चराती, दौड़ती, मस्ताती, महक बिखराती
नई ताज़गी से भरी, मेरे पास आकर रूकती, हांफती सी
तभी नज़र आई उसके चेहरे से टपकती पसीने की बूँद
जैसे पलाश के फूल पर भोर मैं गिरी ओस की बूँद
छूना ही चाहा था कि शर्मा गई
हम तो ख़्वाबों में थे पर भोर सचमुच आ गई
जाते जाते मगर इतना बतला गई
की वो धुंधली तस्वीर जिसकी थी
वो कोई और नहीं - तुम, सिर्फ तुम थी

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