Friday, April 23, 2010

पाखी



जब नदी किनारे बैठा कोई
अंतर्मन को खोजे फंसा कोई हो अंतर्द्वन्द में,
राह ना कोई सूझे तने भवें, चेहरा गुस्से से
लाल तमतमा जाए
मुट्ठी भींचे, दांत पीसकर
सूरज को घूरे जाए
जब हो हताश, वो हो निराश और दिल घबरा जाए
वो हो बेचैन, मन व्याकुल हो
पर राह नज़र ना आए
तब चुपके से, तब धीरे से
फर्र-फर्र सी पाखी आए
एक झटके में, एक पल में वो
सारी चिंता हर जाए
वो मंद-मंद, हौले-हौले उस बरगद के
पत्तों पे रुक जाए
फिर पलकें बंद हो जाए
कूके पाखी, तुम्हें सपनों की
दुनियां में ले जाए
पंखों की होडा-होडी से
तुम्हें गगन सैर करवाए
चाहे हो कितना दूर क्षितिज
वो हवा से पेच लडाए
वो रुके नहीं, वो थके नहीं
बस उडती–उडती जाए
तुम्हें राह मिले अपनी मंज़िल की
हर इच्छा पूरी हो जाए
हर झोंका संचार करे
हर अंतर्द्वंद मिट जाए
फिर आए एक पवन हिलोरा और
नींद तेरी उड जाए
अब हर मुश्किल आसां सी दिखे
कोई कष्ट नज़र ना आए
मन केवल इतना चाहे
जीवन में सबके तू पाखी
एक नया सवेरा लाए

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